11 अगस्त 1942 का दिन बिहार की धरती पर मानो एक आग बनकर उतरा था। पटना के सचिवालय पर हुई गोलीबारी की खबर जैसे ही गोड्डा और बांका के गांवों में पहुँची, युवाओं की आँखों में गुस्से की चिंगारियाँ चमक उठीं। पुलिस की गोलियों से सात छात्रों की शहादत और दो दर्जन से अधिक युवाओं के घायल होने की घटना ने हर घर में एक बेचैनी फैला दी। लोग कहते थे –
“अब चुप बैठना गद्दारी होगी… अंग्रेजों को भगाना ही होगा।”
इन्हीं दिनों सियाराम ब्रह्मचारी का नाम हर किसी की जुबान पर था। वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे। उनकी आँखों में तप था, चेहरे पर तेज था और शब्दों में एक आग। वे जंगलों में अपने साथियों के साथ बैठकर रणनीति बनाते, अंग्रेजों की गतिविधियों पर नजर रखते और युवाओं को संगठित करते। उनके साथ गोड्डा, देवघर और बांका के कई गाँवों से युवा जुड़ चुके थे। हर बैठक में देश की आज़ादी की बातें होतीं और हर युवक अपने प्राण न्योछावर करने को तैयार रहता।
गोड्डा, देवघर और बांका के जंगलों में चल रही क्रांति की खबरें अंग्रेजों के कानों तक पहुँच चुकी थीं। प्रशासन बेचैन था। आदेश आया – “हर उस घर पर नज़र रखो जहाँ आंदोलन की बात हो रही है।” ऐसे में धपरा गांव पर भी खतरे के बादल मंडराने लगे।
शेख शाहबुद्दीन की शरणस्थली बन चुका उनका घर अब अंग्रेजी पुलिस की नज़र में था। कई बार रात के अंधेरे में छापे पड़े। पुलिस के दस्ते टॉर्च लेकर घर की तलाश करते। हर बार परिवार के सदस्य डरते, लेकिन उन्होंने साहस नहीं छोड़ा।
एक रात का दृश्य गाँव वाले आज भी याद करते हैं। बारिश के बाद की ठंडी हवा बह रही थी। घर के बाहर पुलिस की जीप आकर रुकी। दरवाज़ा तोड़ा गया। अंदर अनाज से भरे मटके उलटे-पलटे गए। चावल की बोरियों को गेहूं के साथ मिला दिया गया। गेहूं की बोरियों को खली के साथ मिलाकर अनुपयोगी बना दिया गया। बच्चों के लिए रखी चीज़ें तक नहीं छोड़ी गईं।
गाँव के युवा अब छिपकर नहीं, खुलेआम एकत्र होने लगे। खेतों में काम करने के बाद रात को बैठकें होतीं। वे अंग्रेजों की ताकत का मुकाबला करने की रणनीतियाँ बनाते। संदेश ले जाने के लिए बच्चों तक को तैयार किया गया।
शेख शाहबुद्दीन के बेटे बाद में बताते हैं कि कठिन समय में भी उनका परिवार कभी हार नहीं माना। हर चोट ने उन्हें मजबूत बनाया। हर छापे ने उन्हें यह सिखाया कि आज़ादी कोई आसान रास्ता नहीं, बल्कि त्याग और धैर्य का कठिन मार्ग है।
धपरा से शुरू हुई वह छोटी सी चिंगारी धीरे-धीरे पूरे इलाके में फैलने लगी। अब गोड्डा, देवघर, बांका ही नहीं – आसपास के गाँवों में भी युवाओं की टोली बन चुकी थी। कहीं खेतों की मेड़ पर बैठकें होतीं, कहीं मंदिर के प्रांगण में, तो कहीं नदी किनारे रात के अंधेरे में। हर जगह एक ही चर्चा – अंग्रेजों से कैसे लड़ा जाए? कैसे अपने लोगों को संगठित किया जाए?
रात में युवाओं की टोली दूर-दूर से इकट्ठा होती। कोई बाँसुरी लेकर आता, कोई ढोल, तो कोई गीत गाकर साथियों का मनोबल बढ़ाता। धीरे-धीरे आंदोलन एक जनलहर बन गया।
यह सुनकर हर युवक अपने मन की थकान भूल जाता। जंगलों की मिट्टी, नदी का किनारा, खेत की मेड़ – हर जगह अब देशभक्ति की ऊर्जा दौड़ रही थी।
जैसे-जैसे आंदोलन बढ़ता गया, अंग्रेजी सरकार का आतंक भी बढ़ता गया। गिरफ्तारी का डर हर तरफ फैलाया जा रहा था। गांवों में मुखबिर भेजे जाते, पुलिस चौकियाँ बनाई जातीं और रात-बेरात छापे पड़ते। पर इन सबके बावजूद युवाओं की टोली पीछे हटने का नाम नहीं ले रही थी।
रात के समय जेल के प्रहरी की ड्यूटी बदलने का समय नोट किया गया। कुछ विश्वस्त साथियों ने अंदर से संपर्क बनाया। बाहर जंगलों में छिपे युवाओं ने उपकरण जुटाए – लोहे की छड़ें, रस्सियाँ, कपड़े में छिपे संदेश, और रास्ते की निगरानी।
जेल तोड़ने की योजना एकदम गुप्त रखी गई। गांववालों ने भी इसमें साथ दिया। कोई बाहर चौकसी करता, कोई अंदर खाने-पीने की चीजें पहुँचाता, तो कोई घायल साथियों की सेवा करता। महिलाओं ने अपने आँगन में छिपाकर जरूरी सामान रखा।
एक रात, जब अंधेरा गहराया और प्रहरी की निगरानी ढीली हुई, तब शेख शाहबुद्दीन और साथियों ने जेल की दीवार पर लोहे की छड़ों से प्रहार शुरू किया। आवाज़ दबाने के लिए कपड़े लपेटे गए। साथियों ने प्रहरी को बहलाकर दूसरी दिशा में भेज दिया। कुछ ही घंटों में दीवार का एक हिस्सा कमजोर कर दिया गया।
“चलो! आज़ादी की ओर!” — यह शब्द सुनते ही युवाओं ने छलांग लगाई। अंदर बैठे कैदी, जिनके चेहरों पर महीनों की बंदिश का दर्द था, बाहर भागे। कई घायल थे, कई थके हुए, फिर भी वे आगे बढ़े।
गाँवों में रातोंरात मशाल जलाई गईं। लोग एकत्र होकर योजना बनाने लगे। हर कोई अपने हिस्से की भूमिका समझता – कोई संदेशवाहक, कोई निगरानी, कोई भोजन पहुँचाने वाला।
शेख शाहबुद्दीन के बेटे बाद में बताते हैं कि यह रात उनके जीवन की सबसे बड़ी घटना थी। उन्होंने देखा कि कैसे उनके पिता और उनके साथियों ने मौत को सामने देखकर भी कदम पीछे नहीं हटाया। उस घटना के बाद उनका नाम सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि एक आंदोलन का प्रतीक बन गया।
देवघर और बांका के जंगलों से उठी आवाज़ अब दूर-दराज़ तक गूँजने लगी थी। गाँवों के बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक हर कोई एक ही नाम ले रहा था – “शेख शाहबुद्दीन!”
कुछ युवाओं ने अपने गाँवों में शाखाएँ बनाईं। हर शाखा का एक प्रमुख चुना गया जो अपने इलाके में जागरूकता फैलाता, सभा आयोजित करता और लोगों को अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ खड़ा करता। खेतों में काम करते किसानों ने अब दिनभर की मेहनत के बाद रात में बैठकों में भाग लेना शुरू कर दिया।
महिलाएँ अपने घरों में सिलाई-कढ़ाई के साथ-साथ घायल युवाओं के लिए कपड़े, पट्टियाँ और भोजन तैयार करतीं। कई बार पुलिस के डर से घर में खाना छिपाकर रखा जाता ताकि जरूरत पड़ने पर साथियों तक पहुँचा दिया जाए।
अंग्रेजों ने दमन और बढ़ा दिया। गिरफ्तारी की सूची लंबी हो गई। पुलिस चौकियाँ बढ़ गईं। पर आंदोलन थमा नहीं। जो पकड़े जाते, वे जेल में भी नारे लगाते। जो छिपते, वे नए साथियों को जोड़ते।
जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ता गया, अंग्रेजों का दमन भी उतना ही बढ़ता गया। कई बार पुलिस गाँवों में छापे मारती, अनाज जलाकर नष्ट कर देती, महिलाओं और बच्चों को डराती। लेकिन संघर्ष में लगे परिवारों ने हार मानने से इंकार कर दिया।
इन योजनाओं के साथ आंदोलन का स्वरूप और व्यवस्थित हो गया। अब यह केवल भावनाओं पर आधारित आंदोलन नहीं रहा, बल्कि योजना और अनुशासन से चलने वाला संघर्ष बन चुका था।
धपरा, गोड्डा, देवघर, बांका – हर जगह युवाओं की टोली मजबूत हो चुकी थी। अब वे दिन में खेतों में काम करते और रात में बैठकें कर योजनाएँ बनाते। कई जगहों पर सामूहिक पहरा लगाया गया। बच्चे भी संदेशवाहक बन गए थे। महिलाओं ने अनाज छिपाने, कपड़े तैयार करने और घायल साथियों की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी।
धीरे-धीरे आंदोलन का असर दूर-दूर तक दिखने लगा। पास के जिलों से लोग मदद लेकर आने लगे। कई जगह युवाओं ने अंग्रेजी सामान का बहिष्कार शुरू कर दिया। कई जगह स्कूलों में बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ देशभक्ति के गीत गाते। मंदिरों, मस्जिदों और धर्मस्थलों पर सभाएँ आयोजित की गईं।
शेख शाहबुद्दीन के घर का आँगन अब केवल संघर्ष का केंद्र नहीं, आशा का प्रतीक बन चुका था। हर आने वाले को वहाँ से साहस मिलता। बच्चे खेलते-खेलते नारे लगाते। महिलाएँ अपने दुखों को साझा करतीं और नई ताकत लेकर लौटतीं।
समय की धारा बहती रही। संघर्ष चलता रहा। कई बार लगा कि अंग्रेजों का आतंक सबकुछ निगल जाएगा, पर गाँवों की एकजुटता और युवाओं का साहस उसे बार‑बार पराजित कर देता। अब लोगों के मन में डर की जगह दृढ़ संकल्प ने ले ली थी।
और लोग विश्वास से भर जाते कि यह लड़ाई एक दिन जरूर रंग लाएगी। उनका त्याग व्यर्थ नहीं जाएगा। आने वाली पीढ़ियाँ उनकी कुर्बानी का मान रखेंगी और एक स्वतंत्र भारत की नींव रखेगी।
उस शाम गाँव की हर छत पर दीप जल उठे। बच्चों ने नारे लगाते-लगाते थककर चुप कर लिया, पर उनके चेहरों पर चमक बनी रही। महिलाएँ थालियों में मिठाइयाँ लेकर घूमती रहीं। पुरुष एक-दूसरे से गले मिलते रहे।
आज़ादी का सूरज गाँव-गाँव में चमक उठा था, पर धपरा गाँव की गलियों में आज भी एक सन्नाटा पसरा है। शहीदों की तस्वीरें कई गाँवों में सजाई गईं, बड़े-बड़े बोर्ड लगे, सभाएँ हुईं — पर धपरा, पोस्ट महेष्टिकरी, बसंतराय का नाम जैसे भुला दिया गया।
“एक दिन धपरा के शहीदों का नाम भी उसी सम्मान से लिया जाएगा जैसे अन्य गाँवों के शहीदों का।”
धपरा गाँव की गलियों में अब भी वही सन्नाटा पसरा है। लोग अपने-अपने काम में लगे रहते हैं। किसी के पास इतना समय नहीं कि शहीदों की कहानी पर चर्चा करे। न पंचायत कोई सभा करती है, न प्रशासन कोई कदम उठाता है।
➤ प्रस्तावना
हमारे देश की आज़ादी कई वीरों की कुर्बानी से मिली है। उनमें से एक थे शेख शाहबुद्दीन, जो धपरा गाँव के बहादुर स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने जंगलों में बैठकर अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की योजना बनाई, जेल तोड़ आंदोलन में हिस्सा लिया और देश की सेवा में अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। आज हम उनकी कहानी आपको बता रहे हैं ताकि आप भी अपने देश से प्रेम करें और सही रास्ते पर चलें।
➤ शेख शाहबुद्दीन कौन थे?
➤ उन्होंने क्या-क्या सहा?
➤ हमें उनसे क्या सीखना चाहिए?
शेख शाहबुद्दीन जैसे वीरों की वजह से ही हम आज आज़ाद देश में जी रहे हैं। हमें उनका नाम हमेशा याद रखना है और अपने देश की सेवा के लिए आगे बढ़ना है। आप भी साहसी बनिए, ईमानदार बनिए और अपने देश को गर्व महसूस कराइए!
➡ “जब तक एक भी शहीद अनदेखा है, हमारी आज़ादी अधूरी है!”
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