“धपरा गाँव के शहीद शेख शाहबुद्दीन – आज़ादी की लड़ाई में उनके योगदान की पूरी कहानी”


 11 अगस्त 1942 का दिन बिहार की धरती पर मानो एक आग बनकर उतरा था। पटना के सचिवालय पर हुई गोलीबारी की खबर जैसे ही गोड्डा और बांका के गांवों में पहुँची, युवाओं की आँखों में गुस्से की चिंगारियाँ चमक उठीं। पुलिस की गोलियों से सात छात्रों की शहादत और दो दर्जन से अधिक युवाओं के घायल होने की घटना ने हर घर में एक बेचैनी फैला दी। लोग कहते थे –

“अब चुप बैठना गद्दारी होगी… अंग्रेजों को भगाना ही होगा।”

उस समय बिहार की जमीन पर एक अजीब हलचल थी। हर तरफ डर भी था, और उम्मीद भी। लोग धीमे स्वर में क्रांति की बातें करते थे। खेतों में काम कर रहे किसान, चौराहों पर बैठे युवक, मंदिर की चौखट पर चर्चा कर रहे बुज़ुर्ग — सबके बीच एक ही बात थी:
“हमें अपने देश को आज़ाद कराना है।”

इन्हीं दिनों सियाराम ब्रह्मचारी का नाम हर किसी की जुबान पर था। वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे। उनकी आँखों में तप था, चेहरे पर तेज था और शब्दों में एक आग। वे जंगलों में अपने साथियों के साथ बैठकर रणनीति बनाते, अंग्रेजों की गतिविधियों पर नजर रखते और युवाओं को संगठित करते। उनके साथ गोड्डा, देवघर और बांका के कई गाँवों से युवा जुड़ चुके थे। हर बैठक में देश की आज़ादी की बातें होतीं और हर युवक अपने प्राण न्योछावर करने को तैयार रहता।

इन्हीं युवाओं में एक नाम था – शेख शाहबुद्दीन, जो धपरा गांव का रहने वाला था। वह निडर, तेजतर्रार और देशभक्तों में गिना जाता था। उसके बेटे बाद में बताते हैं कि जब गोड्डा जेल आंदोलन में उसका नाम सामने आया तो अंग्रेजी सरकार ने उस पर मुकदमा दर्ज कर दिया। पुलिस ने उसे पकड़ने के लिए छापे मारे, लेकिन वह पकड़ में नहीं आया। उसके घर पर छापा पड़ा तो अंग्रेजों ने गुस्से में घर का अनाज तक नष्ट कर दिया। चावल को गेहूं के साथ, गेहूं को खली के साथ मिला दिया गया। हर तरफ आतंक का माहौल था, पर शेख साहब ने हार नहीं मानी।
वह जेल तोड़ आंदोलन में शामिल हुए और खुलेआम अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंक दिया। गांव-गांव जाकर युवाओं को जोड़ते, संदेश फैलाते और अंग्रेजों की ताकत के खिलाफ खड़े होने का साहस देते।

धपरा गांव में उनकी बहादुरी की कहानियाँ बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक सुनाई जाती थीं। उनकी पत्नी और बच्चे भी डरते नहीं थे, बल्कि गर्व से कहते थे –
“हमारा घर भी देश के लिए कुर्बान है।”

यह वह समय था जब एक ओर अंग्रेजी हुकूमत के आदेश चल रहे थे, तो दूसरी ओर युवाओं की लहर बढ़ती जा रही थी। हर तरफ संघर्ष की तैयारी हो रही थी। खेतों में, चौपालों में, मंदिरों में – हर जगह एक ही आवाज़ गूंजती थी –
“भारत माता की जय! अंग्रेजों भारत छोड़ो!”

गोड्डा, देवघर और बांका के जंगलों में चल रही क्रांति की खबरें अंग्रेजों के कानों तक पहुँच चुकी थीं। प्रशासन बेचैन था। आदेश आया – “हर उस घर पर नज़र रखो जहाँ आंदोलन की बात हो रही है।” ऐसे में धपरा गांव पर भी खतरे के बादल मंडराने लगे।

शेख शाहबुद्दीन की शरणस्थली बन चुका उनका घर अब अंग्रेजी पुलिस की नज़र में था। कई बार रात के अंधेरे में छापे पड़े। पुलिस के दस्ते टॉर्च लेकर घर की तलाश करते। हर बार परिवार के सदस्य डरते, लेकिन उन्होंने साहस नहीं छोड़ा।

एक रात का दृश्य गाँव वाले आज भी याद करते हैं। बारिश के बाद की ठंडी हवा बह रही थी। घर के बाहर पुलिस की जीप आकर रुकी। दरवाज़ा तोड़ा गया। अंदर अनाज से भरे मटके उलटे-पलटे गए। चावल की बोरियों को गेहूं के साथ मिला दिया गया। गेहूं की बोरियों को खली के साथ मिलाकर अनुपयोगी बना दिया गया। बच्चों के लिए रखी चीज़ें तक नहीं छोड़ी गईं।

शेख शाहबुद्दीन उस रात घर पर नहीं थे। जैसे ही पुलिस ने छापा मारा, वह पहले ही सुरक्षित स्थान पर जा चुके थे। पुलिस की तलाशी में उन्हें न देखकर अधिकारी भड़क उठे।
“इस घर में बागियों का साथ दिया जा रहा है!”
ऐसा कहकर उन्होंने सब कुछ बर्बाद कर दिया।

परिवार की महिलाओं ने देखा — अनाज बिखरा पड़ा है, बच्चों की आँखों में डर, और फिर भी उनके चेहरों पर हार का नाम नहीं। शेख शाहबुद्दीन की पत्नी ने बच्चों को पास बुलाया और कहा –
“डरो मत बेटा, यह बलिदान हमारी आज़ादी का रास्ता बनाएगा।”

अगले ही दिन गाँव में लोग मदद के लिए जुटे। कोई गेहूं लेकर आया, कोई चावल, कोई सब्ज़ी। गांववालों ने कहा –
“हम सब मिलकर इस परिवार की मदद करेंगे। देश की लड़ाई में साथ देना हमारा धर्म है।”

शेख शाहबुद्दीन ने जंगलों में अपने साथियों के साथ नई योजना बनाई। उन्होंने कहा –
“हमारे घर पर हमला हुआ है, इसका मतलब है कि हमारा रास्ता सही है। डरने का नहीं, और मजबूत होने का समय है।”

गाँव के युवा अब छिपकर नहीं, खुलेआम एकत्र होने लगे। खेतों में काम करने के बाद रात को बैठकें होतीं। वे अंग्रेजों की ताकत का मुकाबला करने की रणनीतियाँ बनाते। संदेश ले जाने के लिए बच्चों तक को तैयार किया गया।

इस संघर्ष में एक नई ऊर्जा आई। लोगों ने कहा –
“यह सिर्फ एक परिवार का मामला नहीं है, यह पूरे गाँव की लड़ाई है।”

शेख शाहबुद्दीन के बेटे बाद में बताते हैं कि कठिन समय में भी उनका परिवार कभी हार नहीं माना। हर चोट ने उन्हें मजबूत बनाया। हर छापे ने उन्हें यह सिखाया कि आज़ादी कोई आसान रास्ता नहीं, बल्कि त्याग और धैर्य का कठिन मार्ग है।

धपरा से शुरू हुई वह छोटी सी चिंगारी धीरे-धीरे पूरे इलाके में फैलने लगी। अब गोड्डा, देवघर, बांका ही नहीं – आसपास के गाँवों में भी युवाओं की टोली बन चुकी थी। कहीं खेतों की मेड़ पर बैठकें होतीं, कहीं मंदिर के प्रांगण में, तो कहीं नदी किनारे रात के अंधेरे में। हर जगह एक ही चर्चा – अंग्रेजों से कैसे लड़ा जाए? कैसे अपने लोगों को संगठित किया जाए?

शेख शाहबुद्दीन, जो पहले सिर्फ अपने गाँव के लिए लड़ रहे थे, अब पूरे इलाके में प्रेरणा बन चुके थे। उनका नाम सुनते ही युवाओं के चेहरों पर चमक आ जाती। वे कहते –
“अगर शेख साहब जैसे लोग हैं तो हमें भी पीछे नहीं हटना चाहिए।”

सियाराम ब्रह्मचारी का दल पहले ही जंगलों में रणनीति बना रहा था। अब उनकी मदद को शेख शाहबुद्दीन जैसे निडर युवक जुड़ गए थे। दोनों मिलकर योजनाएँ बनाते –
✔ संदेश भेजने के लिए विश्वस्त लोगों का चयन
✔ पुलिस की हरकतों पर नज़र रखने की व्यवस्था
✔ घायल साथियों के इलाज के लिए गुप्त केंद्र
✔ अंग्रेजों के खिलाफ नारे और सभाओं का आयोजन

रात में युवाओं की टोली दूर-दूर से इकट्ठा होती। कोई बाँसुरी लेकर आता, कोई ढोल, तो कोई गीत गाकर साथियों का मनोबल बढ़ाता। धीरे-धीरे आंदोलन एक जनलहर बन गया।

गाँव की महिलाओं ने भी साथ दिया। वे अनाज छिपाकर देतीं, घायल युवकों की सेवा करतीं, बच्चों को बहादुरी की कहानियाँ सुनाकर प्रेरित करतीं। घर-घर में महिलाएँ कहतीं –
“हमारे बेटे देश के लिए लड़ रहे हैं, हमें उनकी ताकत बनना है।”

इधर अंग्रेजी प्रशासन परेशान हो उठा। हर तरफ नज़र रखी जा रही थी, फिर भी आंदोलन थम नहीं रहा था। अधिकारी कहते –
“यह लड़ाई अब सिर्फ कुछ युवाओं की नहीं रही… पूरा इलाका विरोध में खड़ा है।”

लोग अब खुलेआम अंग्रेजों के खिलाफ नारे लगाने लगे। स्कूल के बच्चे भी अपने साथियों से कहते –
“हम भी आज़ादी की लड़ाई में हैं!”

बुज़ुर्ग भी अब चुप नहीं रहते। वे कहते –
“हमने बहुत अत्याचार देखे, अब अपने बच्चों के साथ मिलकर आवाज़ उठाएँगे।”

शेख शाहबुद्दीन का परिवार भी अब संघर्ष का प्रतीक बन चुका था। गाँव में कोई बच्चा डरता तो उसे उनके घर ले जाकर दिखाया जाता –
“देखो, इनके घर पर छापा पड़ा, अनाज बर्बाद हुआ, फिर भी ये डटे रहे। हमें भी वैसा ही बनना है।”

रात की बैठकों में सियाराम ब्रह्मचारी कहते –
“क्रांति का रास्ता कठिन है, लेकिन यही रास्ता हमें आज़ादी देगा। हमें एक-दूसरे का साथ देना होगा।”

यह सुनकर हर युवक अपने मन की थकान भूल जाता। जंगलों की मिट्टी, नदी का किनारा, खेत की मेड़ – हर जगह अब देशभक्ति की ऊर्जा दौड़ रही थी।

जैसे-जैसे आंदोलन बढ़ता गया, अंग्रेजी सरकार का आतंक भी बढ़ता गया। गिरफ्तारी का डर हर तरफ फैलाया जा रहा था। गांवों में मुखबिर भेजे जाते, पुलिस चौकियाँ बनाई जातीं और रात-बेरात छापे पड़ते। पर इन सबके बावजूद युवाओं की टोली पीछे हटने का नाम नहीं ले रही थी।

इसी दौरान गोड्डा जेल में कई आंदोलनकारियों को बंद कर दिया गया। उनमें शेख शाहबुद्दीन का नाम भी शामिल था। जेल की ऊँची दीवारों के भीतर भी क्रांतिकारी मन हार नहीं मानता। जेल में बैठे साथियों ने एक योजना बनाई –
“हमें जेल तोड़ना होगा… तभी आंदोलन आगे बढ़ेगा!”

रात के समय जेल के प्रहरी की ड्यूटी बदलने का समय नोट किया गया। कुछ विश्वस्त साथियों ने अंदर से संपर्क बनाया। बाहर जंगलों में छिपे युवाओं ने उपकरण जुटाए – लोहे की छड़ें, रस्सियाँ, कपड़े में छिपे संदेश, और रास्ते की निगरानी।

शेख शाहबुद्दीन ने अपने साथियों से कहा –
“हमारी आज़ादी का दरवाज़ा इन दीवारों के भीतर बंद है। इसे तोड़ना ही होगा, चाहे हमें अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े!”

जेल तोड़ने की योजना एकदम गुप्त रखी गई। गांववालों ने भी इसमें साथ दिया। कोई बाहर चौकसी करता, कोई अंदर खाने-पीने की चीजें पहुँचाता, तो कोई घायल साथियों की सेवा करता। महिलाओं ने अपने आँगन में छिपाकर जरूरी सामान रखा।

एक रात, जब अंधेरा गहराया और प्रहरी की निगरानी ढीली हुई, तब शेख शाहबुद्दीन और साथियों ने जेल की दीवार पर लोहे की छड़ों से प्रहार शुरू किया। आवाज़ दबाने के लिए कपड़े लपेटे गए। साथियों ने प्रहरी को बहलाकर दूसरी दिशा में भेज दिया। कुछ ही घंटों में दीवार का एक हिस्सा कमजोर कर दिया गया।

“चलो! आज़ादी की ओर!” — यह शब्द सुनते ही युवाओं ने छलांग लगाई। अंदर बैठे कैदी, जिनके चेहरों पर महीनों की बंदिश का दर्द था, बाहर भागे। कई घायल थे, कई थके हुए, फिर भी वे आगे बढ़े।

शेख शाहबुद्दीन ने सबसे पहले बाहर निकलकर साथियों को बाहर लाने में मदद की। उन्होंने कहा –
“यह हमारी जीत है, पर अभी सफर बाकी है। चलो, जंगलों में छिपते हैं, फिर आगे की योजना बनाएंगे।”

इस घटना ने पूरे इलाके में हड़कंप मचा दिया। अंग्रेजी सरकार का सिर चकरा गया। अधिकारी आदेश देने लगे –
“हर उस गांव को घेरो जहाँ ये बागी छिपे हैं। इनकी मदद करने वालों को कठोर सजा दो!”

लेकिन अब डर की जगह लोगों में गर्व था। महिलाएँ कहतीं –
“हमारे बेटे जेल तोड़ आए हैं… अब कौन रोकेगा इन्हें?”
बच्चे नारे लगाते –
“भारत माता की जय! शेख शाहबुद्दीन अमर रहें!”

गाँवों में रातोंरात मशाल जलाई गईं। लोग एकत्र होकर योजना बनाने लगे। हर कोई अपने हिस्से की भूमिका समझता – कोई संदेशवाहक, कोई निगरानी, कोई भोजन पहुँचाने वाला।

सियाराम ब्रह्मचारी ने जंगल की बैठक में कहा –
“आज हमने दीवार तोड़ी है, कल हमें मन की दीवार तोड़नी है। डर और निराशा से ऊपर उठना होगा। यही हमारी ताकत है।”

शेख शाहबुद्दीन के बेटे बाद में बताते हैं कि यह रात उनके जीवन की सबसे बड़ी घटना थी। उन्होंने देखा कि कैसे उनके पिता और उनके साथियों ने मौत को सामने देखकर भी कदम पीछे नहीं हटाया। उस घटना के बाद उनका नाम सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि एक आंदोलन का प्रतीक बन गया।

देवघर और बांका के जंगलों से उठी आवाज़ अब दूर-दराज़ तक गूँजने लगी थी। गाँवों के बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक हर कोई एक ही नाम ले रहा था – “शेख शाहबुद्दीन!”

आंदोलन अब सिर्फ कुछ युवाओं का प्रयास नहीं रहा, बल्कि यह पूरे समाज की लड़ाई बन गया। पास के इलाकों से लोग संदेश भेजते –
“हमें भी इस संघर्ष में शामिल होना है!”

कुछ युवाओं ने अपने गाँवों में शाखाएँ बनाईं। हर शाखा का एक प्रमुख चुना गया जो अपने इलाके में जागरूकता फैलाता, सभा आयोजित करता और लोगों को अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ खड़ा करता। खेतों में काम करते किसानों ने अब दिनभर की मेहनत के बाद रात में बैठकों में भाग लेना शुरू कर दिया।

महिलाएँ अपने घरों में सिलाई-कढ़ाई के साथ-साथ घायल युवाओं के लिए कपड़े, पट्टियाँ और भोजन तैयार करतीं। कई बार पुलिस के डर से घर में खाना छिपाकर रखा जाता ताकि जरूरत पड़ने पर साथियों तक पहुँचा दिया जाए।

शहीद छात्रों की कहानियाँ अब हर घर में सुनाई जातीं। किसी माँ की आँखें नम हो जातीं जब वह अपने बच्चे से कहती –
“तेरे जैसे बेटों ने ही देश के लिए प्राण दिए हैं… तू भी आगे बढ़।”
किसी बुज़ुर्ग की आवाज़ काँपती –
“उनकी शहादत बेकार नहीं जाएगी। यह बलिदान हमारी आज़ादी की राह बनाएगा।”

अंग्रेजों ने दमन और बढ़ा दिया। गिरफ्तारी की सूची लंबी हो गई। पुलिस चौकियाँ बढ़ गईं। पर आंदोलन थमा नहीं। जो पकड़े जाते, वे जेल में भी नारे लगाते। जो छिपते, वे नए साथियों को जोड़ते।

सियाराम ब्रह्मचारी और शेख शाहबुद्दीन की बैठकों में अब कई जिले शामिल होने लगे। उन्होंने तय किया कि संघर्ष को केवल एक क्षेत्र तक सीमित न रखा जाए। संदेशवाहकों को अलग-अलग दिशाओं में भेजा गया। किसी ने कहा –
“हमारे खेतों की मेड़ से लेकर नदी के किनारे तक, हर जगह आज़ादी का दीप जलाना है।”

कभी-कभी पुलिस गाँवों में आकर धमकी देती –
“अगर आंदोलन नहीं रोका तो पूरा गाँव उजाड़ देंगे!”
लेकिन जवाब आता –
“हमारे प्राण जाएँगे, पर आज़ादी का सपना नहीं टूटेगा!”

गाँव की गलियों में बच्चों की टोली बन गई थी। वे खेल-खेल में नारे लगाते, संदेश पहुँचाते और अपने खेल में आज़ादी की बातें करते। महिलाओं ने गीत बनाए –
“शहीदों की धरती जागे, चलो रे भाई, चलो!”

शेख शाहबुद्दीन के घर पर अब रोज़ नए लोग आते – कोई मदद देने, कोई प्रेरणा पाने। उनके बेटे बताते हैं कि घर का आँगन अब संघर्ष की सभा स्थल बन गया था। हर तरफ आवाज़ें गूंजतीं –
“भारत माता की जय!”
“अंग्रेजों भारत छोड़ो!”

इन संघर्षों में कई लोगों ने अपनी जान दी। कोई गोली से शहीद हुआ, कोई बीमारी से, कोई पुलिस की मार से। पर हर शहादत ने आंदोलन को और मजबूत किया। लोग कहते –
“शहीदों की राख से ही आज़ादी का पौधा उगेगा।”

जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ता गया, अंग्रेजों का दमन भी उतना ही बढ़ता गया। कई बार पुलिस गाँवों में छापे मारती, अनाज जलाकर नष्ट कर देती, महिलाओं और बच्चों को डराती। लेकिन संघर्ष में लगे परिवारों ने हार मानने से इंकार कर दिया।

धपरा जैसे गाँवों में अब हर घर पर एक-सा हाल था। अनाज छिपाकर रखना पड़ता, रात को दरवाज़े बंद कर बैठना पड़ता, कभी-कभी पूरे दिन भूखे रहना पड़ता। फिर भी लोग कहते –
“हम भूखे रह लेंगे, पर अंग्रेजों के आगे नहीं झुकेंगे।”

शेख शाहबुद्दीन के घर पर भी यही स्थिति थी। कई बार बच्चों को आधा पेट खाना मिलता, कई बार घर में अनाज खत्म हो जाता। लेकिन उनकी पत्नी हिम्मत बनाए रखतीं। वे बच्चों से कहतीं –
“आज थोड़ा कम है, पर कल भरपूर मिलेगा। हमें बस अपने मन को मजबूत रखना है।”

जब पुलिस ने छापों में अनाज नष्ट कर दिया तो गाँव वालों ने मदद की। किसी ने गेहूं भेजा, किसी ने चावल, किसी ने अपने खेत से सब्ज़ी। यह सहयोग आंदोलन का सबसे बड़ा सहारा बन गया। लोग समझ चुके थे –
“यह सिर्फ एक परिवार की लड़ाई नहीं, पूरे समाज की लड़ाई है।”

आंदोलन की बैठकों में मनोबल बनाए रखने के लिए कई उपाय किए जाते। सियाराम ब्रह्मचारी हर बार साथियों से कहते –
“थकना मत, डरना मत। हम जितना लड़ेंगे, अंग्रेज उतना हारेंगे।”
वे शहीदों की कहानियाँ सुनाते, ताकि लोग समझें कि बलिदान व्यर्थ नहीं जाता।

शेख शाहबुद्दीन भी अपने साथियों से कहते –
“हमारी सबसे बड़ी ताकत है विश्वास। जब तक हम एक-दूसरे का साथ देंगे, कोई हमें हरा नहीं सकता।”

रात में जब सब थक जाते, तो कोई गीत गाकर माहौल में जोश भर देता। बच्चों की टोली भी खेल-खेल में गीत गाती –
“चलो रे चलो, आज़ादी की राह पर चलो!”

महिलाएँ घर-घर जाकर यह संदेश देतीं कि डर के बावजूद बच्चों को मजबूत बनाना होगा। वे कहतीं –
“हमारी अगली पीढ़ी को आज़ादी की कहानी सुनानी होगी, तभी वह संघर्ष में भाग लेगी।”

कई बार जब पुलिस अधिक कठोर हो जाती, तो गाँव में सामूहिक रूप से रणनीति बनाई जाती –
✔ कौन पहरा देगा
✔ किसे संदेश लेकर जाना है
✔ किस घर में अनाज छिपाना है
✔ घायल साथियों का इलाज कहाँ होगा

इन योजनाओं के साथ आंदोलन का स्वरूप और व्यवस्थित हो गया। अब यह केवल भावनाओं पर आधारित आंदोलन नहीं रहा, बल्कि योजना और अनुशासन से चलने वाला संघर्ष बन चुका था।

शहीदों की याद में हर महीने एक सभा होती। वहाँ बच्चों, महिलाओं, बुज़ुर्गों सबको बुलाकर कहा जाता –
“जो अपने प्राण देकर गए, उन्होंने हमें रास्ता दिखाया है। हमें उनका नाम लेकर आगे बढ़ना है।”

शेख शाहबुद्दीन के बेटे बताते हैं कि पिता जब भी गाँव लौटते, बच्चों के सिर पर हाथ फेरते और कहते –
“तुम्हें डरना नहीं है। देश की सेवा सबसे बड़ा धर्म है। जो कठिनाइयाँ आएँगी, वे तुम्हें और मजबूत करेंगी।”

समय बीतता गया। महीनों तक चले संघर्ष ने अंग्रेजी प्रशासन को थका दिया। छापे, गिरफ्तारियाँ, धमकियाँ — कुछ भी आंदोलन को रोक नहीं पाया। गाँवों में अब एक नई संस्कृति विकसित हो गई थी —
“हम डरेंगे नहीं, हम लड़ेंगे!”

धपरा, गोड्डा, देवघर, बांका – हर जगह युवाओं की टोली मजबूत हो चुकी थी। अब वे दिन में खेतों में काम करते और रात में बैठकें कर योजनाएँ बनाते। कई जगहों पर सामूहिक पहरा लगाया गया। बच्चे भी संदेशवाहक बन गए थे। महिलाओं ने अनाज छिपाने, कपड़े तैयार करने और घायल साथियों की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी।

अंग्रेज अधिकारियों की बैठकें अब बेचैनी से भरी होतीं। वे कहते –
“इन बागियों को कैसे काबू में करें? हर गाँव में उनका प्रभाव बढ़ता जा रहा है!”
लेकिन जितना वे कठोर होते, उतना ही आंदोलन फैलता।
“हम हार नहीं मानेंगे!” — यह वाक्य हर सभा में गूँजता।

शहीद छात्रों की याद में आयोजित सभाएँ अब और बड़ी हो गई थीं। वहाँ हजारों लोग एकत्र होते। दीप जलाकर मौन प्रार्थना की जाती। फिर नारे लगते –
“शहीद अमर रहें!”
“अंग्रेजों भारत छोड़ो!”

शेख शाहबुद्दीन अब सिर्फ अपने गाँव का नहीं, पूरे क्षेत्र का नायक बन चुके थे। लोग उनके आने पर स्वागत करते। बच्चे उनके पीछे दौड़ते। महिलाएँ आरती लेकर स्वागत करतीं। वे हमेशा विनम्र रहते और कहते –
“यह जीत मेरी नहीं, आप सबकी है। एकता ही हमारी सबसे बड़ी ताकत है।”

सियाराम ब्रह्मचारी अपने अनुयायियों से कहते –
“हमारी राह कठिन है, पर याद रखो — हर कदम जो हम आज उठाते हैं, वह आने वाली पीढ़ियों को आज़ादी का रास्ता देगा।”

धीरे-धीरे आंदोलन का असर दूर-दूर तक दिखने लगा। पास के जिलों से लोग मदद लेकर आने लगे। कई जगह युवाओं ने अंग्रेजी सामान का बहिष्कार शुरू कर दिया। कई जगह स्कूलों में बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ देशभक्ति के गीत गाते। मंदिरों, मस्जिदों और धर्मस्थलों पर सभाएँ आयोजित की गईं।

गाँव की गलियों में अब यह चर्चा आम थी —
“कब आएगी आज़ादी?”
लेकिन जवाब भी साथ आता —
“आएगी, जब तक हम एकजुट रहेंगे, जब तक हम संघर्ष करते रहेंगे।”

शेख शाहबुद्दीन के घर का आँगन अब केवल संघर्ष का केंद्र नहीं, आशा का प्रतीक बन चुका था। हर आने वाले को वहाँ से साहस मिलता। बच्चे खेलते-खेलते नारे लगाते। महिलाएँ अपने दुखों को साझा करतीं और नई ताकत लेकर लौटतीं।

लोग कहते –
“हमारी अगली पीढ़ी आज की लड़ाई देखकर बड़ी होगी। वह आज़ाद भारत की नींव रखेगी।”

रात के अंधेरे में भी गाँव की आँखें जागती थीं। कोई पहरा देता, कोई संदेश पहुँचाता, कोई घायल को दवा देता।
सब जानते थे –
“आज का त्याग कल की आज़ादी है।”

समय की धारा बहती रही। संघर्ष चलता रहा। कई बार लगा कि अंग्रेजों का आतंक सबकुछ निगल जाएगा, पर गाँवों की एकजुटता और युवाओं का साहस उसे बार‑बार पराजित कर देता। अब लोगों के मन में डर की जगह दृढ़ संकल्प ने ले ली थी।

शहीदों की कहानियाँ बच्चों के खेल का हिस्सा बन गई थीं। वे नारे लगाते, गीत गाते और अपने साथियों से कहते –
“हम भी बड़े होकर देश के लिए लड़ेंगे।”

महिलाएँ अब केवल घर संभालने वाली नहीं थीं। वे आंदोलन की शक्ति बन चुकी थीं। उनके हाथों में भोजन की थालियाँ ही नहीं, संघर्ष की मशाल भी थी। वे बच्चों को बहादुरी की कहानियाँ सुनाकर उन्हें देशप्रेम से भर देतीं।
“यह हमारी धरती है… इसे आज़ाद देखना ही हमारी जीत है।”

सियाराम ब्रह्मचारी और शेख शाहबुद्दीन के नेतृत्व में आंदोलन ने दूर-दूर तक असर डाला। गाँवों में मिल बैठकर योजनाएँ बनतीं। खेतों में काम करने वाले किसान भी अब अंग्रेजों के खिलाफ खुलकर आवाज़ उठाने लगे। जो पहले डरते थे, अब कहते –
“अगर हमारे बेटे, बहुएँ, भाई देश के लिए जान दे सकते हैं तो हम भी पीछे नहीं हटेंगे।”

कई बार अंग्रेजों ने लोगों को डराने की कोशिश की। पर हर बार जवाब आता –
“डर से बड़ी चीज़ है देश की आज़ादी!”

आंदोलन की सभाओं में शहीदों की तस्वीरें सजाई जातीं। लोग दीप जलाकर मौन रखते। फिर गीत गाते –
“हम न झुकेंगे, हम न रुकेंगे, आज़ादी का सूरज उगाएँगे।”

शेख शाहबुद्दीन के बेटे बाद में बताते हैं कि वे अपने पिता को सिर्फ एक बहादुर योद्धा के रूप में नहीं, बल्कि एक गुरु की तरह देखते थे। वे कहते –
“उन्होंने हमें सिखाया कि डर से ऊपर उठना ही सच्चा साहस है। कठिन समय में भी मन को मजबूत रखना ही विजय की कुंजी है।”

गाँव के बच्चे जब खेलते तो युद्ध का अभिनय करते। कोई खुद को शहीद बताता, कोई संदेशवाहक। वे कहते –
“हम भी बड़े होकर शहीदों जैसा बनेंगे!”

धीरे-धीरे यह विश्वास फैलता गया कि आज़ादी कोई दूर का सपना नहीं, बल्कि आने वाला सत्य है। हर सभा में यह बात कही जाती –
“बलिदानों की यह लौ बुझने नहीं देंगे। यह प्रकाश पीढ़ी दर पीढ़ी फैलता रहेगा।”

लोगों ने अपने खेतों में काम करते हुए आकाश की ओर देखना शुरू किया। उन्हें विश्वास था –
“आज़ादी की सुबह अब दूर नहीं।”

सियाराम ब्रह्मचारी अंतिम सभा में कहते –
“हमारा संघर्ष किसी एक गाँव के लिए नहीं, पूरे देश के लिए है। याद रखो – यह आंदोलन हमारी आत्मा का प्रतीक है। आज जो बीज हम बो रहे हैं, वही कल स्वतंत्र भारत का वृक्ष बनेगा।”

शेख शाहबुद्दीन की आँखों में चमक थी। वे अपने साथियों से कहते –
“आज़ादी का सूरज जब उगेगा, तब हर घर में खुशियाँ होंगी। पर उसके लिए हमें अभी और संघर्ष करना होगा। हम हार नहीं मानेंगे।”

गाँव की गलियों में फिर से नारे गूँजते –
“भारत माता की जय!”
“शहीदों अमर रहें!”

और लोग विश्वास से भर जाते कि यह लड़ाई एक दिन जरूर रंग लाएगी। उनका त्याग व्यर्थ नहीं जाएगा। आने वाली पीढ़ियाँ उनकी कुर्बानी का मान रखेंगी और एक स्वतंत्र भारत की नींव रखेगी।

सालों की लड़ाई, अनगिनत बलिदानों और अडिग संघर्ष के बाद वह दिन आखिर आ ही गया जिसकी प्रतीक्षा हर गाँव, हर घर, हर दिल कर रहा था। जब यह खबर पहुँची कि भारत आज़ाद हो गया है, तो धपरा गाँव से लेकर गोड्डा, देवघर और बांका तक मानो एक ही स्वर गूँज उठा –
“जय हिंद! भारत आज़ाद हुआ!”

गाँव की गलियों में लोग दौड़ते हुए एक-दूसरे को गले लगाते। बच्चों के चेहरे खुशी से दमक रहे थे। महिलाएँ आँसुओं से भीगी आँखों के साथ दीप जलाकर शहीदों को नमन कर रही थीं।
हर घर में पकवान बने, कहीं गीत गाए गए, कहीं ढोलक की थाप पर नृत्य हुआ। लेकिन इस खुशी के साथ एक गहरी नमी भी थी — कितनों ने इस दिन को देखने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया था!

शेख शाहबुद्दीन के घर के बाहर भीड़ जुट गई। लोग उनके चरण छूकर कह रहे थे –
“आपकी हिम्मत से यह दिन आया है। आपने दिखाया कि साहस क्या होता है।”
उनकी पत्नी बच्चों के साथ दीप जलाकर शहीदों की तस्वीरों के सामने खड़ी थीं। उनकी आँखों में आँसू थे, लेकिन चेहरे पर गर्व था।
“हमने कठिनाइयाँ झेली, पर आज हमारे बलिदान सफल हुए,” उन्होंने धीमे से कहा।

सियाराम ब्रह्मचारी भी गाँव में पहुँचे। उनके साथियों ने उनका स्वागत करते हुए कहा –
“आपकी राह दिखाने से ही यह विजय मिली।”
उन्होंने सबको संबोधित करते हुए कहा –
“यह आज़ादी किसी एक की नहीं, हम सबकी है। जो गिर गए, जिन्होंने भूख, मार और जेल झेली – उनकी आत्मा इस विजय में जीवित है। अब हमें उनकी याद में एक बेहतर भारत बनाना होगा।”

शहीदों की याद में सभा आयोजित की गई। दीप जलाकर मौन रखा गया। फिर बच्चों ने गीत गाया –
“बलिदान से आई आज़ादी, हम निभाएँगे इसकी जिम्मेदारी!”

गाँव के बुज़ुर्गों ने अपने जीवन की घटनाएँ सुनाईं – कैसे छापों में अनाज नष्ट हुआ, कैसे पुलिस के डर से रातें जागकर बिताई गईं, कैसे बच्चों ने भूख झेली, और कैसे परिवारों ने साहस नहीं छोड़ा।
हर किसी ने कहा –
“हमारे शहीदों की वजह से ही आज यह दिन आया है। हम उनके सपनों को कभी टूटने नहीं देंगे।”

उस दिन बच्चों ने खेलते-खेलते शपथ ली –
“हम पढ़ाई करेंगे, मेहनत करेंगे, और देश की सेवा करेंगे!”

महिलाओं ने कहा –
“हम अपने बच्चों को आज़ादी का अर्थ समझाएँगे, ताकि वे भविष्य में इसे संजोए रखें।”

शेख शाहबुद्दीन के बेटे अपने पिता की गोद में बैठे थे। वे धीमे से बोले –
“अब हमें क्या करना है, बाबा?”
शेख साहब मुस्कुराए और बोले –
“अब हमें देश को मजबूत बनाना है। हमने आज़ादी पाई है, अब उसे बनाए रखना है। यही हमारी अगली लड़ाई है — अपने देश को शिक्षित, सशक्त और सम्मानित बनाना।”

उस शाम गाँव की हर छत पर दीप जल उठे। बच्चों ने नारे लगाते-लगाते थककर चुप कर लिया, पर उनके चेहरों पर चमक बनी रही। महिलाएँ थालियों में मिठाइयाँ लेकर घूमती रहीं। पुरुष एक-दूसरे से गले मिलते रहे।

लेकिन सबके दिलों में एक ही भाव था —
“यह आज़ादी हमारी ताकत है, हमारी जिम्मेदारी है। इसे सँजोकर रखना है… आने वाली पीढ़ियों के लिए।”

आज़ादी का सूरज गाँव-गाँव में चमक उठा था, पर धपरा गाँव की गलियों में आज भी एक सन्नाटा पसरा है। शहीदों की तस्वीरें कई गाँवों में सजाई गईं, बड़े-बड़े बोर्ड लगे, सभाएँ हुईं — पर धपरा, पोस्ट महेष्टिकरी, बसंतराय का नाम जैसे भुला दिया गया।

शेख शाहबुद्दीन का परिवार आज भी संघर्ष कर रहा है। उनके बेटे बताते हैं –
“हमारे पिता ने जान देकर देश को आज़ादी दिलाई… पर आज हम सरकारी योजनाओं के लिए दर-दर की ठोकर खा रहे हैं।”
घर की दीवारें अब भी उन दिनों की गवाह हैं जब अनाज नष्ट हुआ, पुलिस का आतंक छाया, और पूरा परिवार भूखा रहकर भी देश के लिए खड़ा रहा।

बिहार से झारखंड अलग हुए 25 साल से अधिक हो चुके हैं। हर जिले में स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर स्मारक बने हैं, लेकिन धपरा के नाम पर कोई बोर्ड तक नहीं।
गाँव के लोग कहते हैं –
“क्यों हमारे शहीदों का नाम छिपा दिया गया? क्या उनकी कुर्बानी बेकार हो जाएगी?”

कुछ लोग बताते हैं कि अंग्रेजी शासन के समय दर्ज कागज़ात जानबूझकर छिपा दिए गए। शेख शाहबुद्दीन की मृत्यु पहले ही हो गई थी, इसलिए उनका नाम प्रशासन की सूची में दर्ज नहीं हुआ। पर क्या इससे उनकी बहादुरी कम हो जाती है? क्या उनका बलिदान मिट सकता है?
गाँव की माताएँ आँसू भरे स्वर में कहती हैं –
“हमारे शहीदों का नाम नहीं लिखा गया, पर उनका खून हमारी मिट्टी में है। यही हमारी पहचान है।”

फिर भी, हर बार उम्मीद की एक लौ जलती है। बच्चे स्कूल में स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियाँ पढ़ते हैं और पूछते हैं –
“धपरा के शहीदों का नाम कहाँ है?”
बुज़ुर्ग मुस्कुराकर कहते हैं –
“एक दिन सब बदल जाएगा। हम आवाज़ उठाएँगे… तब उनका नाम हर जगह लिखा जाएगा।”

शेख शाहबुद्दीन के बेटे अपने बच्चों को बताते हैं –
“हिम्मत मत हारो। आज हमें भले मान-सम्मान न मिला हो, पर हमारी पहचान मिट नहीं सकती। जब तक हम याद रखेंगे, तब तक उनका बलिदान जीवित रहेगा।”

“एक दिन धपरा के शहीदों का नाम भी उसी सम्मान से लिया जाएगा जैसे अन्य गाँवों के शहीदों का।”

सियाराम ब्रह्मचारी के शब्द अब भी लोगों के दिल में गूंजते हैं —
“संघर्ष सिर्फ आज़ादी पाने के लिए नहीं, बल्कि उसे संजोकर रखने के लिए भी है।”
शेख शाहबुद्दीन की तस्वीर हर घर में नहीं सही, पर उनकी कहानी हर दिल में बसती है।

आख़िर में गाँव के बच्चों ने मिलकर एक नारा दिया —
“हम अपने शहीदों को याद रखेंगे, उनका नाम रोशन करेंगे!”

यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। यह संघर्ष की नई शुरुआत है। यह उस पीड़ा की आवाज़ है जो कहती है –
“बलिदान का सम्मान करो… इतिहास को जीवित रखो… और आने वाली पीढ़ियों को उनके अधिकार दिलाओ।”

धपरा गाँव में अब सिर्फ शोक नहीं था, बल्कि एक नई ऊर्जा जाग उठी थी। गाँव के लोग बैठकर सोचते —
“अगर हम चुप रहे तो इतिहास से शहीदों का नाम मिट जाएगा। हमें आवाज़ उठानी होगी!”

धपरा गाँव की गलियों में अब भी वही सन्नाटा पसरा है। लोग अपने-अपने काम में लगे रहते हैं। किसी के पास इतना समय नहीं कि शहीदों की कहानी पर चर्चा करे। न पंचायत कोई सभा करती है, न प्रशासन कोई कदम उठाता है।

शेख शाहबुद्दीन का घर अब भी उसी तरह साधारण है। दीवारों पर समय की मार है, आँगन में वीरानी छाई है। बच्चे बड़े हो गए हैं, पर उनके चेहरे पर वही संघर्ष की छाप है जो उनके बचपन में थी। वे कहते हैं –
“हमारे पिता का नाम कहीं नहीं… न स्कूल में, न सरकारी कागज़ में, न किसी स्मारक पर।”

जब भी वे प्रशासन के पास जाते हैं, जवाब मिलता है –
“कागज़ कहाँ है? प्रमाण लाओ… फ़ाइल देखनी होगी…”
पर कागज़ तो जैसे जानबूझकर छिपा दिए गए हैं। कोई मदद नहीं, कोई योजना नहीं।
उनकी पत्नी कहती हैं –
“हमने अपना सब कुछ देश के लिए दिया… पर आज हमें खुद अपने अधिकार के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा है।”

गाँव के लोग भी चुप हैं। कोई खुलकर साथ नहीं देता। कुछ कह देते हैं –
“इन सब झंझटों में क्यों पड़ना… सरकारी काम सरकार जाने।”
कुछ डरते हैं कि कहीं प्रशासन नाराज़ न हो जाए।
और कुछ तो कहते हैं –
“कहाँ से साबित करेंगे कि वे स्वतंत्रता सेनानी थे?”

लेकिन शेख साहब के बेटे हार नहीं मानते। वे अपने बच्चों से कहते हैं –
“सम्मान माँगना शर्म की बात नहीं। जो इतिहास में दर्ज नहीं है, उसे दर्ज करवाना हमारी जिम्मेदारी है।”
वे हर बार कोशिश करते हैं – आवेदन लिखते हैं, अधिकारियों से मिलते हैं, गाँव के बुज़ुर्गों से गवाही माँगते हैं, पुराने कागज़ तलाशते हैं।

कई बार निराशा घेर लेती है। रात को बैठकर वे अपने पिता की तस्वीर को निहारते हैं। धीमे से कहते हैं –
“बाबा… आपने तो जान दे दी… पर हम अब भी लड़ रहे हैं। हमें हिम्मत दीजिए।”

उनकी आँखों में आँसू हैं, पर चेहरे पर दृढ़ता भी।
“हम हारेंगे नहीं… आपका नाम हम जीवित रखेंगे… जब तक आख़िरी साँस है!”

इस संघर्ष में कोई बड़ा अभियान नहीं, कोई तालियाँ नहीं, कोई सभा नहीं — बस परिवार की चुपचाप चलती लड़ाई है।
यह लड़ाई शायद इतिहास की किताबों में न लिखी जाए, पर दिलों में गूंजती रहेगी।
हर रात, जब गाँव सो जाता है, शेख साहब का परिवार दीप जलाकर बैठता है और मौन प्रार्थना करता है —
“हे ईश्वर, हमें ताकत देना… ताकि हम अपने शहीद पिता का मान वापस ला सकें।”


➤ प्रस्तावना

हमारे देश की आज़ादी कई वीरों की कुर्बानी से मिली है। उनमें से एक थे शेख शाहबुद्दीन, जो धपरा गाँव के बहादुर स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने जंगलों में बैठकर अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की योजना बनाई, जेल तोड़ आंदोलन में हिस्सा लिया और देश की सेवा में अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। आज हम उनकी कहानी आपको बता रहे हैं ताकि आप भी अपने देश से प्रेम करें और सही रास्ते पर चलें।


➤ शेख शाहबुद्दीन कौन थे?

✔ धपरा गाँव में रहते थे।
✔ गोड्डा, देवघर और बांका के जंगलों में अंग्रेजों के खिलाफ योजना बनाते थे।
✔ जेल तोड़ आंदोलन में भाग लिया।
✔ भूख और कठिनाइयों के बावजूद आंदोलन में लगे रहे।
✔ अपने परिवार और खेत छोड़कर देश की सेवा की।
✔ आज भी उनका परिवार सम्मान के लिए संघर्ष कर रहा है।


➤ उन्होंने क्या-क्या सहा?

✔ पुलिस का आतंक
✔ अनाज नष्ट कर देना
✔ घर में मारपीट और छापे
✔ जेल जाने का खतरा
✔ बच्चों और परिवार की चिंता
✔ फिर भी देशप्रेम में डटे रहना


➤ हमें उनसे क्या सीखना चाहिए?

✔ कठिन समय में भी हार नहीं माननी चाहिए।
✔ देश की सेवा सबसे बड़ा धर्म है।
✔ एकता में ताकत होती है।
✔ अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठानी चाहिए।
✔ दूसरों की मदद करना चाहिए।

“शहीदों की कुर्बानी, हमारी पहचान!”
“देश के लिए जीना और मरना — यही सच्चा धर्म!”
“हम भी बड़े होकर देश की सेवा करेंगे!”

शेख शाहबुद्दीन जैसे वीरों की वजह से ही हम आज आज़ाद देश में जी रहे हैं। हमें उनका नाम हमेशा याद रखना है और अपने देश की सेवा के लिए आगे बढ़ना है। आप भी साहसी बनिए, ईमानदार बनिए और अपने देश को गर्व महसूस कराइए!

“शहीदों का मान – हर घर की पहचान!”
“बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा!”
“हम आवाज़ उठाएँगे, न्याय दिलाएँगे!”

➡ “जब तक एक भी शहीद अनदेखा है, हमारी आज़ादी अधूरी है!”

संपर्क सूचना 

📍 धपरा ग्रामसभा
📞 संपर्क : [8578070157]
📩 ईमेल : [mdasife14@gmail.com]

Md Asif Equbal


Dhapra 



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